क्या आप अवींद्र प्रताप पाण्डेय से अवगत हैं??? नहीं??
क्या यह आपको कुछ सुना सुना सा प्रतीत हो रहा है । नहीं ??
परन्तु इसके क्या कारण हैं।
आज जब भारत सहित समग्र संसार मित्रता दिवस मना रहा है इस दौरान हम उस व्यक्ति कि उपेक्षा कर रहे हैं जिसने हमारे देश में मित्रता कि एक मिसाल कायम कि थी।
यह एक आम संध्या थी जब एक जोड़ा देर रात फिल्म देख कर अपने गंतव्य कि और लोट रहा था उसे अपने साथ होने वाले इस भीषण और अविस्मरणीय घटना का जरा भी एहसास न था । जिस बस में वो यात्रा कर रहे थे उसमे ६ हैवान उपस्थित थे उन हैवानों ने बड़ी बेरहमी और क्रूरता के साथ उसके आँखों के समक्ष ही उसकी महिला मित्र का बलात्कार कर दिया। वह चिल्लाया, रोया,और अपने सामर्थ से अधिक विरोध करता रहा । वह अकेला था और उसके समक्ष ६ राक्षस उसने बोहोत प्रयत्न किया उसकी महिला मित्र ने भी पृतन्यतर विरोध किया वह बोहोत चिल्लाई रोई पर ऐसा लगता था मानो उन हैवानो का इंसानियत से कोई रिश्ता ही न था उन्होंने उसकी एक न सुनी। जब उनकी हैवानियत का तांडव समाप्त हुआ तब उन्होंने उन दोनों को बस गतिशील बस से बहार फेक दिया।
नग्न, अवस्कंद, अपवित्र, अपमानित और घायल अवस्था में दोनों सड़क के किनारे पड़े हुए थे। परन्तु उस लड़के ने हार नहीं मानी और मदद के लिए प्रायः आवाज लगता रहा आने जाने वाले हर व्यक्ति से मदद कि गुहार करता रहा और अंततः ४० मं बाद उन्हें मदद मिली और उसने एक शाल से अपनी प्रेमिका को धक दिया ऐसी परिस्थिति में जब लोग सिर्फ मूक दर्शक बन कर सब देख रहे थे उस लड़के ने जरा भी हार नहीं मानी और अपनी प्रेमिका का साथ नहीं छोड़ा। उन हैवानों ने उस लड़के को अति अमानवीय तरीके से पीटा।
परन्तु उस लड़के कि गलती ही क्या थी ???
क्या उसकी गलती यह थी कि वह अन्याय को बर्दाश्त न कर सका??
बाद में उस लड़की कि चिकित्सा हुई,और उसे बचने का हर संभव प्रयास हुआ जो कि हो न सका ,
परन्तु क्या किसी ने यह सोचा कि अगर वह अदभुत प्रेमी उस लड़की के साथ न होता तो आज इसी घटना कि क्या दशा होती ?? वह वहां से भाग भी तो सकता था, उसके समक्ष ६ लोग थे परन्तु उसने अपनी जान कि बाजी लगते हुए उन लोगो से अंतिम क्षण तक मुकाबला किया परन्तु समाज ने उस व्यक्ति को क्या दिया सिर्फ उपेक्षा। उस लड़की को हर संभव सुविधा दी गयी उसके पिता को नौकरी, सरकार से सहायता और सहानुभूति मिली परन्तु उस असल जीवन के नायक को और उसके परिवार को सिर्फ उपेक्षा, यह कहाँ तक उचित है। गोरखपुर का एक साधारण सा लड़का जो कि कोई महामानव नहीं था परन्तु उसके सहस और निर्भीकता ने उसे असल जिंदगी में एक मिसाल बना दिया, प्रेम और मित्रता कि मिसाल।
यह बात सुनने में भले ही विचित्र लगे परन्तु जरा गौर करें हम पश्चिम का अनुसरण करते हुए ३ अगस्त को मित्रता दिवस मानते तो हैं, परन्तु बिना किसी कारणवस, क्या इससे बेहतर यह नहीं कि हम मित्रता दिवस १६ दिसंबर को मनाएं और इस प्रेम और मित्रता के लिए दिए गए इस बलिदान को सदा के लिए अमर कर दें??
मित्रों सोचिये और अगर यह सुझाओ आपको अच्छा लगे तो औरों को भी इसका अनुसरण करने के लिए प्रेररित कीजिये।
A friend who stands by you in dire need, is a true friend indeed!
Do you know Awindra Pratap Pandey?
Does it ring a bell; none, right?
But why should it; while the world (including India) is celebrating Friendship Day,
We choose to ignore the one person who set the greatest example of friendship.
It had been one of the regular evenings; a couple was returning from a late night movie completely unaware of the horror that awaited them. There were six of them in the bus- the devils who raped the girl right in front of the boy; he yelled, protested, fought and fought till he could no longer. He was alone and they were that many; the girl screamed and wept, but the bastards took no notice. And when they were finished with her, they threw the two of them off the moving bus.
Naked, assaulted, abused and hurt- the boy begged for help; tried stopping whosoever he spotted to plead for a shawl to cover the naked body of his girlfriend, but the couple were rescued 40 minutes later. Yet, the boy never left her side.
The boy had been beaten in the most brutal manner. What was his mistake; just that he stood for what was right. The girl was taken to the hospital, given medical care and her parents notified and to think who made all this possible?
The loving boyfriend! Why, he could have been a coward and fled the scene the moment he realised he was outnumbered. He could have deserted her, but no, he fought the assailants with all his might; they hurt him severely, used an iron rod to break his resolve but he stood as a true friend all through. He was nearly killed just as she had been, but the irony is that we know all about the victim-the girl and her trauma but the boy was forgotten.
He could have still milked the story, sought retribution and recognition, but he preferred the anonymity that the media chose to award him with. While the girl- Nirbhaya’s father took all assistance from the Government- money, job, and sympathy, the boy was lost despite all that he did for the girl. He had been the reason the girl is living today, yet none spoke of his bruises, his agony and his sacrifices. He took no medical allowances too.
This ordinary friend from Gorakhpur (U.P) was no superman, but his actions made him one. While we celebrate friendship day emulating the west for reasons we are not even aware of, why can’t we dedicate friendship day on the 16th of December for this brave friend who helped and did not leave his friend when it mattered?
THINK long and hard, would you have the courage to do the same and you would know the answer. If you agree, then do your bit, pass it on and celebrate friendship day for this hero!